surkanda devi story hindi: देवी सती के 51 शक्तिपीठों में से एक है सुरकंडा देवी मंदिर, टिहरी जिले में सुरकुट पर्वत पर स्थित है माता सती का यह मंदिर….
surkanda devi story hindi
आपने संपूर्ण देश में माता काली और दुर्गा के कई चमत्कारिक मन्दिर देखे और सुने होंगे जो भक्तों के कष्टों को हरने के लिए जाने जाते हैं। जिस प्रकार जम्मू में स्थित मा वैष्णो देवी, चमोली में स्थित मां नंदा देवी, कोलकाता में स्थित मां महाकाली, संपूर्ण देश में प्रसिद्ध है ठीक उसी प्रकार उत्तराखंड में भी भगवती दुर्गा का एक ऐसा चमत्कारी और प्रसिद्ध मंदिर है जो कि देवी सती के 51 शक्तिपीठों के रूप में जाना जाता है और अपने चमत्कारों के साथ-साथ दयालु देवी के रूप में भक्तों के बीच प्रसिद्ध है। हम बात कर रहे हैं उत्तराखंड के टिहरी में स्थित सुरकंडा देवी मंदिर का।
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सुरकंडा देवी मंदिर(Surkanda Devi Temple tehri garhwal)
Surkanda Devi Temple tehri garhwal
सुरकंडा देवी मंदिर टिहरी जिले में सुरकुट पर्वत पर स्थित माता सती का एक ऐसा मंदिर है जहां के दर्शन मात्र से ही पूर्व जन्म में किए हुए पापों से मुक्ति मिलती है और यहां विराजमान सुरकंडा देवी भक्तों के कष्टों को हरने वाली और उनकी रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहने वाली देवी के रूप में जानी जाती है। कहते हैं जो कोई भी व्यक्ति अपनी जीवन में राह भटक जाता है तो इस मंदिर में आने से उसे जीवन की राह नजर आने लगती है। इसी कारण भक्तों के बीच यह मंदिर खास प्रसिद्ध है और साल भर यहां भक्तों का ताता लगा रहता है। यह मंदिर माता सती के 51 शक्तिपीठों में से एक है। इस जगह पर देवी सती का सर गिरा था जिसके बाद इस मन्दिर का निर्माण हुआ था और तब से अब तक यहां पर देवी सती की सर की पूजा देवी सुरकंडा के रूप में होती है और सुरकंडा देवी यहां काली के रूप में विराजमान है।
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सुरकंडा देवी मंदिर का इतिहास (History of Surkanda Devi Temple
History of Surkanda Devi Temple
मंदिर के इतिहास की बात करें यह एक प्राचीन मंदिर है जो कि 8 वी सदी का बताया जाता है। मंदिर का निर्माण 8वीं शताब्दी में कश्मीर के राजा सुचत सिंह ने करवाया था और बाद में टिहरी गढ़वाल के शासकों ने इसका जीर्णोद्धार कराया था। मंदिर निर्माण में पारंपरिक गढ़वाली शैली एवं वास्तुकला का प्रयोग किया गया है। पौराणिक कथाओं और इतिहासकारों के अनुसार जब भगवान शिव को माता सती ने पति रूप में स्वीकारा था तो यह बात उनके पिता श्री राजा दक्ष को मंजूर नहीं थी। जिस कारण वह शिव भगवान से हमेशा ईर्ष्या करते थे। एक बार उन्होंने भगवान शिव को नीचा दिखाने के लिए हरिद्वार के कनखल में स्थित एक बड़ा यज्ञ का आयोजन किया जिसमें उन्होंने संपूर्ण देवी देवताओं को आमंत्रित किया लेकिन सती और उनके पति शिव भगवान को आमंत्रित नहीं किया। जिस बात से बुरा मानकर सती बिन बुलाए हरिद्वार स्थित कनखल में आयोजित यज्ञ में पहुंच गई और अपने पति के अपमान का बदला लेने के लिए हवन कुंड में कूद गई। हवन कुंड में कूदने से देवी सटी मृत्यु को प्राप्त हुई जिसके बाद भगवान शिव वैराग्य हो गए और वह सती के शरीर को लेकर पूरे ब्रह्मांड में विचरण करने लगे। भगवान शिव की ऐसी दुर्दशा देख भगवान विष्णु ने देवी सती के मृत देह को अपने चक्र से काटा जिसके 51 भाग संपूर्ण पृथ्वी पर जा गिरे। जहां-जहां देवी सती के यह 51 अंग गिरे वह स्थान शक्तिपीठों के नाम से जाने जाने लगे। कहते हैं कि उन्ही अंगों में से एक अंग देवी सती का सर टिहरी जिले में स्थित सुरकुट पर्वत पर गिर था। जिस पर वर्तमान सुरकंडा देवी मंदिर स्थापित है। तब से इस स्थान पर माता सती की सर की पूजा सुरकंडा के रूप में होने लगी और यह मंदिर और स्थान सुरकंडा देवी नाम से विख्यात हुआ। चुकी देवी का सर सुरकुट पर्वत पर गिरा था जिस कारण मंदिर का नाम सुरकंडा पड़ा।
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सुरकंडा देवी मंदिर की विशेषता (Specialty of Surkanda Devi Temple)
Specialty of Surkanda Devi Temple
इस मंदिर की खास विशेषता यह है कि यहां न सिर्फ स्थानीय लोग बल्कि संपूर्ण भारत और विश्व से लोग भगवती के दर्शन हेतु पर्यटन की दृष्टि से भी घूमने आते हैं। मंदिर 2750 मीटर की ऊंचाई पर स्थित होने के कारण यहां से हमें नीलकंठ, केदारनाथ-बद्रीनाथ, गंगोत्री-यमुनोत्री जैसे कई घाटियों के पर्वत मालाएं देखने को मिलती है जो की हर आने वाले सभी भक्तों और पर्यटकों को अपनी और लुभाते हैं। एक और जहां मंदिर से भव्य घाटियों का नजारा देखने को मिलता है तो दूसरी ओर मंदिर का रास्ता पैदल होने से यहां के हरे-भी नदी घाटियां, जंगली बांज बुरांश और रसोली के पेड़ आत्मा सुकून देता है जिससे अधिकतर भक्त भगवती के दर्शन कर धन्य होने के साथ-साथ ही सुकून की प्राप्ति भी करते हैं। कहते हैं जो कोई भी यहां आता है देवी सुरकंडा उसे खाली हाथ नहीं भेजती। इसलिए जिंदगी में एक बार इस मंदिर के दर्शन अवश्य करने चाहिए।
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